बिन माँ की बच्ची
K S Chhatwal
9/29/20241 min read


'बिन माँ की बच्ची'
वह खिड़की के पास बैठी थी। उसकी नज़र बाहर के अँधेरे पर टिकी थी। जैसे ही टिकट चैकर आया, उसने शांति से अपना आधार कार्ड उसे थमा दिया। उस पर लिखे नाम ने उसे झकझोर कर रख दिया, अपने अतीत से एक ऐसा नाम, जिसे उसने कभी दोबारा मिलने की उम्मीद नहीं की थी। अधिकारी के हाथों की पकड़ ढीली पड़ गई, कार्ड पर उसकी उंगलियों से फिसल कर फर्श पर गिर गया।
उसके मुंह से अचानक निकला, “चिंकी?”
पारुल को कुछ अटपटा सा लगा।
उसने गहरी नजर से ऊपर देखा, “जी! पर आप कौन?”
अधेड़ उम्र के थे – सफेद पैंट और कंधों पर झूलता ढीला-सा काला कोट। पीतल की एक नेम प्लेट जिस पर उनका नामं लिखा था – राकेश अवस्थी।
चैकर ने धीमी आवाज में कहा “बेटा, मैं राकेश! राकेश अवस्थी! पापा!”
पारुल का चेहरा एकदम सफेद पड़ गया। ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके शरीर से सारा खून निचोड़ लिया हो। उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकला। सारा शरीर मानो पत्थर का हो गया हो।
बचपन से पापा की एक पुरानी फोटो देखते-देखते बड़ी हुई थी। काले घुँघराले बाल थे उनके और आँखों में चमक। उस फोटो से इस शख्स की शक्ल बिल्कुल मेल नहीं खाती थी। उड़े हुए खिचड़ी से बाल और आँखों पर मोटा चश्मा।
कुछ क्षण तो वह बुत बनी बैठी रही और फिर मुंह नीचे करके सिसकने लगी। पीछे बैठी एक बुजुर्ग महिला ने शक की नज़र से चैकर की तरफ देखा और पारुल से पूछा, “क्या बात है बेटा?”
“कुछ नहीं आंटी मैं ठीक हूँ”, कह कर पारुल वॉशरूम चली गई। जब वह वापिस आई तो राकेश साथ वाली सीट पर सिर झुकाए बैठे थे। पारुल बिना कुछ बोले अपनी सीट पर बैठ गई।
राकेश ने कुछ क्षण रुक कर बहुत धीमी आवाज में पूछा, “बेटा कितने साल हो गए तुम्हें ढूंढते। अच्छा ये बताओ तुम्हारी मम्मा और नानी कैसी हैं। तुम क्या कर रही हो? पढ़ाई पूरी हो गई तुम्हारी?”
पारुल ने धीमी और ठहरी हुई आवाज़ में जवाब दिया, “मम्मा को गए तो सोलह साल हो चुके हैं और दो साल पहले नानी भी नहीं रहीं। और कुछ पूछना है? और रही बात पढ़ाई की, जब आपने हमें छोड़ा था, तब मेरे बारे में सोचा नहीं, तो आज क्यों पूछ रहे हैं?”, इतना कहते हुए पारुल ने उनकी तरफ ऐसी नज़र से देखा कि वह उसकी सवालिया निगाह का सामना न कर सके और नज़र नीची कर ली।
“बेटा, मैंने नहीं छोड़ा। तुम्हारी मम्मा अपनी मर्ज़ी से गई थीं। दरअसल प्रॉब्लम तुम्हारी नानी की वजह से थी - उनकी दखलंदाज़ी बहुत ज़्यादा थी हमारे घर में। जो हो गया उसके लिए मुझे माफ कर देना और चलो घर पहुँच कर बाकी बातें करेंगे।“
“किसके घर?”
“मेरे घर, हमारे घर! अब तुम हमारे साथ ही रहोगी।“
“कौन-कौन है आपके घर मेँ?”
“बेटा बस मैं हूँ और तुम्हारी नई मम्मा हैं- बस हम दोनों हैं। अब तुम आ जाओगी तो फैमिली पूरी हो जाएगी।“
“देखिए, मैं कहीं नहीं जाऊँगी, आप जल्दी से कहिए क्या कहना हैं आपको? और आप कौन सी फैमिली की बात कर रहे हैं? फैमिली को जब आप की जरूरत थी, आपने उसे छोड़ दिया था। मेरी सिर्फ एक ही मम्मा थीं जो सही इलाज न मिल पाने की वजह से वक्त से पहले मर गईं“ कहते हुए पारुल ने उनके चेहरे पर नजर गड़ा दी।
पारुल के ठहरी हुई, पर सख्त आवाज़ से उनके चेहरे पर कुछ परेशानी के भाव उभरे और उन्होंने कहा, “ठीक है बेटा, चंडीगढ़ पहुँच कर बात करेंगे - प्लेटफ़ॉर्म पर मेरा इंतजार करना, मैं चार्ज हैन्ड ओवर करके आ जाऊंगा, ये मेरा कार्ड रखो।“
इस बीच दो-तीन बार राकेश उस की सीट के पास से गुज़रे लेकिन पारुल ने उनकी तरफ देखा भी नहीं।
जैसे ही ट्रेन चंडीगढ़ पहुंची, पारुल करीब-करीब भागती हुई प्लेटफ़ॉर्म से बाहर निकल गई।
करीब पाँच महीने बाद राकेश को पारुल की ई-मेल मिली।
लिखा था, “मिस्टर अवस्थी, पिछले कई साल से बहुत तड़प थी आपसे मिलने की, पर आप से मिल कर मुझे ऐसी कोई फीलिंग नहीं आई जैसी किसी बेटी को अपने पिता के साथ होने से होनी चाहिए और न ही मुझे आपका साथ इतना सुरक्षित लगा कि मैं आपके घर चली जाऊँ।
आपने मेरी पढ़ाई के बारे में पूछा था। मेरी उम्र उस वक्त शायद छ साल रही होगी जब आपने हमारा साथ छोड़ दिया था। माँ क्रॉनिक अस्थमा से पीड़ित - नानी अपनी कमज़ोर काया के साथ जैसे-तैसे हम दोनों को संभाल रही थी। एक कमरे के मकान में, हम तीन औरतें, तीन पीढ़ियाँ अपने अपने भाग्य से लड़ती हुईं। पढ़ने का या स्कूल जाने का न तो कोई साधन था और न ही ऐसी कोई सोच थी। किसी तरह ज़िंदा रह लें, बस इतनी तक ही लड़ाई थी हमारी। नानी दिन भर स्कूल में हेल्पर का काम करती थीं और शाम को आ कर नज़दीक के एक घर में खाना बनाने का काम करती थीं – कुल इतने ही पैसे घर में आते थे कि बस रोटी का इंतजाम हो सके। पढ़ाई तो बहुत दूर की बात थी।
किसी तरह नानी ने दो साल माँ को संभाला पर माँ यह लड़ाई हार गई।
मोहल्ले में मेरी उम्र के सब बच्चे स्कूल जाते थे और मैं इधर-उधर आवारागर्दी करती रहती। कई बार पड़ोस की आंटियाँ मेरी शिकायत ले कर नानी के पास आतीं तो नानी हाथ जोड़ने लगती, बहन इसे कुछ मत कहना, बिन माँ की बच्ची है।
फिर एक दिन ऐसा आया कि नानी ने पहली और आखिरी बार मुझे थप्पड़ मारा।
आठ साल की थी मैं - उस दिन नानी को बहुत बुखार था और घर में खाने को कुछ नहीं था। भूख और बुखार में वह निढाल सी पड़ी थीं। ऐसा कोई साधन नहीं था जहाँ से खाना मिल सके - मुझे बहुत भूख लगी तो मैं बेवजह टहलती हुई मोहल्ले के एक हलवाई की दुकान पर पहुँच गई और बाहर खड़ी वहाँ रखे समोसों की तरफ ललचाई नज़र से देखने लगी। उसने पूछा कि भूख लगी है? मैंने हाँ में सिर हिलाया तो उसे दया आ गई – बिन माँ की बच्ची थी न मैं। उसने कहा कि चलो कुछ बर्तन धो दो। मैंने एक घंटे तक बर्तन धोए तो उसने मुझे चार समोसे दे दिए और मैं उन्हे लेकर घर आ गई।
जब घर के पास पहुँची तो वहाँ कोहराम-सा मचा हुआ था। बुखार में तपती हुई नानी सड़क पर बैठी, अपने हाथ-पैर जमीन पर पटक कर रो रही थीं - हाए, मेरी बच्ची को कौन ले गया। जैसे ही उसने मुझे देखा, बाहों में भर कर चूमती जाती और रोती जाती, अरे करमजली कहाँ चली गई थी। मैंने रोते-रोते बताया कि मैंने हलवाई की दुकान पर बर्तन धोए और उसने मुझे समोसे दिए। नानी ने मुझे इतने जोर से चांटा मारा कि मेरे कान सुन्न हो गए। मुझे थप्पड़ मारने के बाद नानी बहुत रोई और फिर अगले ही दिन नानी ने एक और घर में खाना बनाने का काम पकड़ लिया और मुझे स्कूल में भर्ती करवा दिया।
एक बिन माँ की बच्ची होने के कारण मुझे अपनी सारी ज़िंदगी - स्कूल, कॉलेज, ऑफिस, - सब जगह सहानुभूति मिलती रही और मुझे इसकी आदत-सी भी पड़ गई – अपने आप पर विश्वास भी लगातार कम होता रहा। जिन लड़कियों के पेरेंट्स नहीं होते, बचपन में उन्हे ढेर सारी दया मिलती है और जब वो बड़ी हो जाती हैं तो लोगों की लालसा भरी नज़रों देखते हैं – क्योंकि वो हमेशा सॉफ्ट टारगेट होती हैं। आप उस वक्त अगर आप मेरे साथ होते तो मेरी ज़िंदगी कुछ और ही होती।
आपको शिकायत थी कि नानी आपके घर क्यों आती थीं। वो हमारे घर सिर्फ इतवार के दिन आती थीं। वो भी सिर्फ इसलिए कि सारा दिन रुक कर तीन-चार दिन के लिए सब्जियां बना दिया करती थीं, घर की साफ-सफाई कर देती थीं ताकि मम्मा को कुछ आराम मिले। पर आपसे ये भी बर्दाश्त नहीं हुआ।
अब अगर आप मुझे अपने घर रखने की बात कर रहे हैं तो शायद आप अपने बुढ़ापे का सहारा ही तलाश कर रहे हैं। लेकिन जिस घर में मेरी माँ और मेरी नानी के लिए जगह नहीं हैं, मैं वहाँ नहीं रहूँगी। मैं अब माँ और नानी की खुद्दारी की पहरेदार हूँ।
पर आपसे मिल कर एक फायदा ज़रूर हुआ - मुझे अपना रास्ता मिल गया। मैंने पहले दो बार आईएएस का प्रीलिमनेरी इग्ज़ैम पास किया था पर मेन नहीं हो सका क्योंकि मन में जुनून नहीं था - सोचती थी कि किसके लिए ये सब करना है – न तो माँ थी और न ही नानी और न ही अपनी कोई एम्बिशन। सारी ज़िंदगी आपको ढूंढती रही और उदासी, बेचारगी और घुटन में अपनी ज़िंदगी गुज़ार दी – न तो अपनी मम्मा और नानी के लिए कुछ कर सकी और न ही अपने लिए कोई ढंग का करियर बना पाई – बस किस्मत के थपेड़े खाती हुई आपको ढूंढती रही।
पर, आपसे मिलने के बाद मेरी भटकन खत्म हो गई - आपकी आँखों में अपने लिए दया और स्वार्थ देखा तो बेचारगी और कमज़ोरी का एहसास हुआ – बस सोच लिया कि ‘बिन माँ की बच्ची’ के टैग की कमाई और नहीं खाऊँगी।
अहम को चोट लगी थी इसलिए इरादा बना लिया कि स्ट्रॉंग बनना है और जो कुछ करना है बस अपने लिए करना है। ज़िंदगी का मकसद मिल गया तो जुनून भी जाग गया।
मेरा आइ ए एस का मेन इग्ज़ैम क्लियर हो गया है।
अब एक रिक्वेस्ट है न तो कभी मुझे कान्टैक्ट करना, न ही मिलना। मैं अब बहुत आगे निकल चुकी हूँ- बहुत से काम करने हैं ज़िंदगी में।
पारुल